परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य शोध संस्थान की स्थापना सन् १९७२ में हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक तथा साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (१८८४ – १९४१) की स्मृति में हुई थी। आचार्य शुक्ल की अमर कृति ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ साहित्य समीक्षा के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य का मूल ग्रन्थ है। उनकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में चिंतामणि, रसमीमांसा, मधुश्रोत हैं।

आचार्य शुक्ल संस्थान अपने स्थापना-वर्ष से ही हिंदी साहित्य एवं अन्य भाषाओँ के साहित्य संवर्धन और शोध कार्यों में अनवरत संलग्न है। तदनुसार आचार्य शुक्ल संस्थान भवन में अपने उद्देश्यों के अनुरूप साहित्यिक एवं अन्य बौद्धिक सम्मेलन हेतु ५०० व्यक्तियों की क्षमता वाले सभागार एवं अनुसंधान के लिग १० हज़ार ग्रन्थों के पुस्तकालय की व्यवस्था है।

कुसुम चतुर्वेदी एवं डॉ. मुक्ता के संपादन में संस्थान द्वारा हिंदी की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ‘नया मानदंड’ का प्रकाशन भी होता रहा है।

इसके अतिरिक्त संस्थान द्वारा अनेक पुस्तकों के प्रकाशन से अनुसन्धान कार्यों को आधार प्रदत्त किया गया है। संस्थान ने शोध-छात्रवृत्ति भी प्रदान की है।

आचार्य शुक्ल संस्थान द्वारा प्रकाशनों, वैचारिक विमर्शों तथा संगोष्ठियों की शृंखलाएँ आयोजित की जाती रही हैं जिन से संस्थान को साहित्यिक श्रेष्ठता की ख्याति प्राप्त हुई है। इन संगोष्ठियों में डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, कर्ण सिंह चौहान प्रभृत्ति विद्वानों की सहभागिता से साहित्य परंपरा संमृद्ध हुई है। संस्थान के द्वारा साहित्यिक क्षेत्र में योगदान हेतु विद्वतजनों को ससम्मान पुरस्कृत किया गया है। विशेष उल्लेखनीय है कि आचार्य शुक्ल संस्थान मे साहित्य की विधा के अंतर्गत नाटकों का मंचन किया जा रहा है। वाराणसी के प्रमुख क्षेत्र में लगभग एक बीघा भूखंड पर संस्थान का विशाल भवन निर्मित है। संस्थान मैं आधुनिक सुविधाओं से संपन्न सभागार है। संस्थान अपनी स्थापना से ही एक स्वयंसेवी संगठन है। जिसके कारण भारत सरकार ने इसको दिए किसी भी आर्थिक अनुदान को आयकर धारा 80G के तहद ५० प्रतिशत करमुक्ति का प्रावधान किया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल – जीवन परिचय

रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् १८८४ में उत्तर प्रदेश बस्ती जिले के अगोना नामक गाँव में हुआ था। इनकी माता जी का नाम विभाषी था और पिता चंद्रबली शुक्ल की नियुक्ति सदर कानूनगो के पद पर मिर्ज़ापुर में हुई तो समस्त परिवार वहीं आकर रहने लगा। जिस समय शुक्ल की अवस्था नौ वर्ष की थी, उनकी माता का देहान्त हो गया। मातृसुख के अभाव के साथ-साथ विमाता से मिलने वाले दुःख ने उनके व्यक्तित्व को अल्पायु में ही परिपक्व बना दिया।

अध्ययन के प्रति लग्नशीलता शुक्ल में बाल्यकाल से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से १९०१ में स्कूल फाइनल परीक्षा (FA) उत्तीर्ण की। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखें, किंतु शुक्ल उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर साहित्य में थी।

अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे। शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास किया, किंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका। १९०३ से १९०८ तक आनन्द कादम्बिनी के सहायक संपादक का कार्य किया। १९०४ से १९०८ तक लंदन मिशन स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक रहे। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर १९०८ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिन्दी शब्दसागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। श्यामसुन्दर दास के शब्दों में शब्दसागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय रामचंद्र शुक्ल को प्राप्त है। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे। १९१९ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए जहाँ श्यामसुंदर दास की मृत्यु के बाद १९३७ से जीवन के अंतिम काल १९४१ तक विभागाध्यक्ष के पद पर रहे।

2 फरवरी १९४१ को हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल का देहांत हो गया।

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